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श्रीगणेश के रूप

श्रीगणेश के रूप

श्रीगणेश के रूप की विशेषता    AP     –चल्लपल्लि भास्कर रामकृष्णमाचार्युर्लु ज्ञानानन्दमयं देवं निर्मलं स्फटिकाकृतिम्‌। आधारं सर्वविद्यानां हयग्रीवमुपास्महे॥ ओंकारमाद्यं प्रवदन्ति संतो वाचः श्रुतीनामपि यं गृणन्ति। गजाननं देवगणानतांघ्रिं भजेऽहमर्द्धेन्दुकृतावतंसम्‌॥  ‘जो ज्ञान तथा आनंद के स्वरूप हैं, विनिर्मल स्फटिक तुल्य जिनकी आकृति है, जो समस्त विद्याओं के परमाधार हैं, उन श्री गणेश जी की मैं उपासना करता हूं। जिनको संत लोग आद्य ओंकार कहते हैं, जिनके सिर पर अर्धचन्द्र शोभा पाता है तथा सभी देवतागण जिनके चरणों पर नतमस्तक होते हैं, उन गजमुख श्री गणेशजी की मैं वंदना करता हूं।‘  श्री गणेशजी की आराधना अनादिकाल से भारत में प्रचलित है। कुछ आधुनिक लोग पाश्चात्य मतों से प्रभावित होकर इस भ्रान्ति में पड़ते हैं कि गणेशजी की उपासना वैदिक नहीं है, अपितु इसका स्वरूप अर्वाचीन काल में प्रचलित हुआ। लेकिन वेद तथा आरण्यकों में गणपतिमंत्र तथा गणपतिगायत्री की उपलब्धि होती है, जिनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि गणपति उपासना वेदविहित है।  ‘गणेशयागणपतिनाम की विवेचना  मनद्वारा ग्राह्य तथा वाक्‌द्वारा वर्णनीय सम्पूर्ण भौतिक जगत्‌ को तोकार से उत्पन्न हुआ जानें तथा मन और वाक्‌ से अतीत ब्रह्मविद्यास्वरूप परमात्मा कोकार समझें।अध्यात्म विद्या परमात्मा का स्वरूप है– ‘अध्यात्मविद्या विद्यानाम्‌‘ (गीता 10 32) परमात्मा के चिंतन तथा वर्णन में मन तथा वाणी समर्थ नहीं है।  ‘ यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।‘ (तैत्तिरीय. 2 4) ‘ चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा॥‘ (मुण्डकोपनिषद् 3 8)  इस भौतिक जगत्‌ तथा अध्यात्म विद्या के स्वामीगणेशकहलाते हैं–  मनोवाणीमयं सर्वं गकाराक्षरसम्भवम्‌। मनोवाणीविहीनं णकारं विद्धि मानद। तयोः स्वामी गणेशोऽयं योगरूपः प्रकीर्तितः॥ सम्प्रज्ञातसमाधिस्थो गकारः कथ्यते बुधैः। असम्प्रज्ञातरूपं वै णकारं विद्धि॥ तयोः स्वामी गणेशोऽयं शान्तियोगमयस्सदा॥  ‘कार सम्प्रज्ञातसमाधि के तथाकार असम्प्रज्ञातसमाधि के स्वरूप हैं। इन दोनों के स्वामीगणेशकहलाते हैं।

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